પ્રેરણા પરિમલ
બ્રહ્મસ્વરૂપ પ્રમુખસ્વામી મહારાજની પ્રેરક પ્રસંગ-સ્મૃતિઓ
તા. 19-6-2010, દિલ્હી
દિલ્હીના વર્તમાન લેફ્ટનન્ટ ગવર્નર તેજેન્દ્ર ખન્ના સ્વામીશ્રીનાં દર્શને આવ્યા હતા. તેઓ સ્વામીશ્રી પ્રત્યે ખૂબ આદર ધરાવે છે અને ખૂબ સાત્ત્વિક છે, વળી સત્સંગ પ્રત્યે રુચિવાળા છે. એટલે જ આજે પોતાની સાથે કોઈ સેક્રેટરીને લીધા નહોતા. તેઓના સેક્રેટરીને તેઓએ કહ્યું હતું કે ‘आज तो मैं सत्संग के लिए जाता हूँ, इसलिए किसी की जरूरत नहीं है।’
તેઓએ પોતાના અનુભવોની વાત કરતાં કહ્યું : ‘राष्ट्रपति भवन में एक डिनर के कार्यक्रम में मुरली मनोहर जोषी मिले थे। उन्होंने बताया था कि भारत में २०० आश्रम ऐसे है जिन्होंने सो करोड़ लोगों को एक जूट रखा है। वे लोग सब को सात्त्विकता की तरफ ले जाते हैं। जिन्होंने देश को जोड़ रखा है। बाकी इस देश में कितनी भाषा है, कितने धर्म है, किसम किसम के लोग रहते हैं॰॰ उन सब को जोड़ने वाली ताकत संत ही है। हमारे प्रमुखस्वामी जैसे संत सब को जोड़ के रखते हैं।’
સ્વામીશ્રી કહે : ‘संत का कार्य एक ही है - सब को भगवान की तरफ ले जाना। संतों से देश में और समाज में शांति रहती है।’
આત્મસ્વરૂપ સ્વામી કહે : ‘इसलिए ही प्रमुख-स्वामीजी का जीवनमंत्र है कि परस्पर प्रीति प्रसरावे वही धर्म।’
શ્રી ખન્ના કહે : ‘मैंने किताब में हिन्दू शब्द का अर्थ पढ़ा था। जो गहरे ध्यान में जा कर अंदर का अनाहत ॐकार नाद सूनता है, वो ही सच्चा हिन्दू है, और जब तक प्रमुखस्वामी जैसे संत के चरणों में वो नहीं आता है, तब तक ये साधना होती नहीं है। दरवाजा बंद ही रहता है। ऐसे संत आशीर्वाद दे के दरवाजा खोलते हैं, तो ऐसा अनहत नाद सुनाई देता है। परम संत के आगे कुछ भी नहीं है।’ વળી તેઓ કહે : ‘ऐसे स्थान के द्वारा आपकी कृपा सबके उपर बरसती रहती है।’
તેઓએ લગભગ પોણો કલાક સુધી સ્વામીશ્રીનો સત્સંગ માણ્યો.
Vachanamrut Gems
Gadhadã II-55:
A constant Thought in My Mind
“However, the following thought is constantly in My mind: When a person is laid down on his death-bed with death impending, everyone loses their self-interest in that person. The mind of the person who is dying also becomes dejected from worldly life. In the same way, I also constantly feel as if death is imminent for Myself as well as for others. In fact, I constantly regard each and every worldly object to be perishable and insignificant. Never do I make any distinctions such as, ‘This is a nice object, and this is a bad object.’ Instead, all worldly objects appear the same to Me…”
[Gadhadã II-55]