પ્રેરણા પરિમલ
પ્રગટ બ્રહ્મસ્વરૂપ મહંત સ્વામી મહારાજની પ્રેરક પ્રસંગ-સ્મૃતિઓ
તા. 4-12-2017, જયપુર
આજે યુવાદિનની સભામાં યુવાનોએ પોતાને ગૂંચવતા પ્રશ્નો સ્વામીશ્રી સમક્ષ પ્રસ્તુત કર્યા. જેમાંથી કેટલાક પ્રશ્નો અહીં મૂક્યા છે :
પ્રશ્ન : ‘हम सब टूटे-फूटे डिब्बे जैसे हैं। कोई काम से टूटा है, तो कोई मान से, तो कोई देहाभिमान से... तो आप हमें अक्षरधाम ले जाएँगे।’
‘हाँ, क्यों नहीं।’ સ્વામીશ્રીએ કહ્યું.
પ્રશ્ન : ‘हमारा मन डिजिटल वर्ल्ड में लग जाता है। जैसे कि फेसबुक, वोट्सअप वगैरह। उसमें टाइम बिगड़ता है और उसे युझ न करें तो हमारे साथीदार हमें बुद्धु मानते हैं, तो हमें क्या करना चाहिए।’
સ્વામીશ્રીએ અદ્ભુત ઉત્તર આપ્યો : ‘प्रमुखस्वामी महाराज के वचन में विश्वास आ जाए, तो सब छूट जाएगा। विश्वास कि ‘यही मेरा भला कर सकते हैं। दूसरा कोई नहीं।’
પ્રશ્ન : ‘हमारा मन अस्थिर है, तो हम क्या करे जिससे वह स्थिर हो और भटके नहीं।’
સ્વામીશ્રીએ ઉત્તર બતાવતાં કહ્યું કે ‘वह सत्संग करते-करते होगा। यह बहुत बड़ी बात है। जन्मों से हमने जो नहीं करना था, वही किया है। ग्रेज्युएट होने में भी २० वर्ष लगते हैं, तो यह धीरज रखके, विश्वास रखके, संत-समागम करने से होगा। संत की बात मानो, तो सब आ जाएगा।’
પ્રશ્ન : ‘आपमें दिव्यभाव रहे और मनुष्यभाव न आए, उसके लिए क्या करना चाहिए।’
સ્વામીશ્રીએ હસીને કહ્યું કે ‘प्रेक्टिस करना पड़ेगा। एक दिन दिव्यभाव आएगा, एक दिन मनुष्यभाव आएगा। ऐसे-ऐसे चलते-चलते ज्ञान होगा; फिर दिव्यभाव हमेशा के लिए रहेगा।’
Vachanamrut Gems
Vartãl-11:
A Paradox to Resolve
“… Only when he attains a spiritual state similar to that of the great Purush does he behave like the great Purush, and only then does he understand the great Purush’s behaviour. However, as long as one has not realised the greatness of the Satpurush, one does not attain the state of being brahmaswarup; yet, without ãtmã-realisation, one cannot realise the greatness of the Satpurush. Hence, there seems to be a paradox. Now please explain how this paradox can be reconciled?”
[Vartãl-11]